शनिवार, 1 सितंबर 2018

गरज



गरज
जाने कहाँ गये वो दिन, कहते थे तेरी छाव मे जीवन को हम बितायेंगे,
ना छोडेंगे यूँ साथ तेरा, साथ चलते जायेंगे,
जिस रहा चलोगे तुम हमसफर बन जायेंगे ,

फिर आज क्यूँ अकेला चल रहा हूँ मैं,
जीवन की तपन सहे घुट के मर रहा हूँ मैं ,
सदी सा ये दिन लगे , रात सर्द लग रही क्यूँ ,
क्यूँ लगे पहाड सा, ये रास्ता उजाड सा,
पैर थक रहे है क्यूँ , छाले पड रहे है क्यूँ ,

यूँ तो मैं एक उछाल मे चाँद को पछाड दूँ ,
सूर्य को मैं ढाँक दूँ , सागर को विस्तार दूँ ,
है गरज यही मेरी , पहाड को मैं लाँघ दूँ ,
प्रथ्वी की बदलू दिशा, प्रकृति को सवाँर दूँ ,

तुम तो थे गरज मेरी , गरज अब रही कहाँ,
शक्ति थे तुम प्राण की, वो शक्ति अब रही कहाँ,
मुस्कुरा रहा हूँ कि सामने हो तुम खडे हुए ,
ढांप लेता चेहरा फिर कि नयन है भरे हुए ,

हृदय मे है वेदना, टीस बढ रही है क्यूँ ,
बढ रही हृदय गति,  पर नब्ज थम रही है क्यूँ ,
बज रही है जल तरंग ,पर धुन क्यूँ है शोक की,
नभ मे तारे दिख रहे, पर माँद क्यूँ है रोशनी,
चकोर बैठा सामने पर चन्द्र मे वो  आभा कहाँ,
जिससे सारा जग जुडा वो प्रेम का धागा कहाँ ,,,

     *** अंकित चौधरी ***



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