रात घटाए आई थी
घिर कर ,
हवाओं मे अजब शोर था,
वो आकर लौट गए दर
से मेरे ,
हम समझे के कोई
और था ,
अफसाना बन भी
जाता कोई,
कुछ मेरी बेख्याली
,
सोचता हूँ ख्याल
ना आयें उसका ,
पर बेख्याली मे
भी ख्याल आता है ,
मैं खुद को लिखता
हूँ, रोज़ हर्फ़ -हर्फ़ ,
वो एक झटके मे
मिटा जाता है,
शर्मिंदा आईने
टूटे ,
पर्दे डाल ले चिलमन ,
झलक एक जो दिख
जाये ,
तेरा चेहरा जो चमक जाता
है ,
सितारे फ़लक से उतरे ,
कभी आओ जो महफिल मे ,
भवरें पागल हो
जाएं ,
कभी जाओ जो गुलशन मे,
कभी तुम छत पर मत
आना ,
चाँद छुप जाएगा बदल मे ,
तुम्हारा कुछ ना
जाएगा ,
नुकसान ओरो का होगा यूँ ,
कोई आशिक ईद मना
लेगा ,
इसी मुग़ालत मे,
उम्मीदें टूटी
रहने दो ,
इन्हे तुम जोड़ते
क्यों हो ,
ग़र मंज़िल एक है
अपनी ,
तो राहे मोड़ते क्यों हो ,
हमे फकीरी
की आदत है ,
ख़्वाब दिखाओ ना जन्नत के,
ग़र आए हो सजदे मे,
फिर इबादत तोड़ते क्यों हो ,
आगोश मे ले लो ,
सुकून आ जाए सांसों मे,
बरसों का जागा
हूँ ,
सो जाऊँ मैं अंचल मे,
आहट कोई ना करना ,
डर लगता है हर आहट से ,
आहें कोई ना भरना
,
चोट लगती है आहों से ,
मुरझायें से
क्यों हो ,
जैसे पत्ता टूटा हो शाखों
से ,
आब-ए -चश्म क्यों
बरसे है ,
बरबश तुम्हारी आँखों से ,
गर अजीज़ हो मेरे
,
दूर फिर दौड़ते क्यों हो ,
ग़र अफ़सोस है इतना
,
हाथ फिर छोड़ते क्यों हो,
यूँ हाथ छुड़ाने से ,
रिश्ते छूट नहीं जाते,
गर्दिश मे आने से,
सितारे टूट नहीं जाते ,
ग़फलत मे ना आना तुम,
सागर
की फितरत से ,
गर दरिया सागर मे मिल जाये,
तो दरिया डूब नहीं जाते ,
अगर लहरों से
डरते हो ,
तो नाव उतारते क्यों हो ,
ग़र दुनिया से
डरते हो,
तो जान वारते क्यों हो।
*** अंकित चौधरी ***
कभी तुम छत पर मत आना , चाँद छुप जाएगा बदल में ,
जवाब देंहटाएंतुम्हारा कुछ ना जाएगा , नुकसान ओरो का होगा यू ,
कोई आशिक ईद मना लेगा , इसी मुग़ालता में।!!!!!!!!
प्रिय को भावपूर्ण सवाल जवाब से सजी ये रचना बहुत रोचक और मन को छू लेने वाली है अंकित जी | सस्नेह शुभकामनायें |
साभार धन्यवाद। .
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर....आपकी रचनाएं पढकर और आपकी भवनाओं से जुडकर....
जवाब देंहटाएंआदरणीय धन्य्वाद सादर...
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