शनिवार, 22 सितंबर 2018

ग़र अज़ीज हो मेरे



रात घटाए आई थी घिर कर ,
हवाओं  मे अजब शोर था,
वो आकर लौट गए दर से मेरे ,
हम समझे के कोई और था ,
अफसाना बन भी जाता कोई,
कुछ मेरी बेख्याली ,
कुछ शायद रुसवाई का दौर था।

सोचता हूँ ख्याल ना आयें उसका ,
पर बेख्याली मे भी ख्याल आता है ,
मैं खुद को लिखता हूँ, रोज़ हर्फ़ -हर्फ़ ,
वो एक झटके मे मिटा जाता है,

शर्मिंदा आईने टूटे ,
पर्दे डाल ले चिलमन ,
झलक एक जो दिख जाये
तेरा चेहरा जो चमक जाता है ,

सितारे फ़लक से उतरे
कभी आओ जो महफिल मे ,
भवरें पागल हो जाएं 
कभी जाओ जो गुलशन मे,
कभी तुम छत पर मत आना
चाँद छुप जाएगा बदल मे ,
तुम्हारा कुछ ना जाएगा
नुकसान ओरो का होगा यूँ ,
कोई आशिक ईद मना लेगा
इसी मुग़ालत मे,

उम्मीदें टूटी  रहने दो
इन्हे तुम जोड़ते क्यों हो ,
ग़र मंज़िल एक है अपनी
तो राहे मोड़ते क्यों हो ,
हमे  फकीरी  की आदत है
ख़्वाब दिखाओ ना जन्नत के,
ग़र आए हो सजदे मे
फिर इबादत तोड़ते क्यों हो ,

आगोश मे ले लो
सुकून आ जाए सांसों मे,
बरसों का जागा हूँ 
सो जाऊँ मैं अंचल मे,
आहट कोई ना करना
डर लगता है हर आहट से ,
आहें कोई ना भरना
चोट लगती है आहों से ,
मुरझायें से क्यों हो
जैसे पत्ता टूटा हो शाखों से ,
आब-ए -चश्म क्यों बरसे है
बरबश तुम्हारी आँखों से ,
गर अजीज़ हो मेरे
दूर  फिर दौड़ते क्यों हो ,
ग़र अफ़सोस है इतना
हाथ फिर छोड़ते क्यों हो,

यूँ हाथ छुड़ाने से ,
रिश्ते छूट नहीं जाते,
गर्दिश मे आने से, 
सितारे टूट नहीं जाते ,
ग़फलत मे ना आना तुम, 
सागर की फितरत से ,
गर दरिया सागर मे मिल जाये,  
तो दरिया डूब नहीं जाते ,

अगर लहरों से डरते हो ,
तो नाव उतारते क्यों हो ,
ग़र दुनिया से डरते हो,  
तो जान वारते क्यों हो।


     *** अंकित चौधरी ***

5 टिप्‍पणियां:

  1. कभी तुम छत पर मत आना , चाँद छुप जाएगा बदल में ,
    तुम्हारा कुछ ना जाएगा , नुकसान ओरो का होगा यू ,
    कोई आशिक ईद मना लेगा , इसी मुग़ालता में।!!!!!!!!
    प्रिय को भावपूर्ण सवाल जवाब से सजी ये रचना बहुत रोचक और मन को छू लेने वाली है अंकित जी | सस्नेह शुभकामनायें |

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  2. अच्‍छा लगा आपके ब्‍लॉग पर आकर....आपकी रचनाएं पढकर और आपकी भवनाओं से जुडकर....

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