इश्क़ मे देखते - देखते क्या मक़ाम
आया ,
बैठे थे सजदे मे ,और जुबां पर तेरा नाम आया,
यूँ तो मरने की चाह ना थी मेरी,
ये बेरुखी कैसी , खिलाफत कैसी अपनो से ,
आ समझौता कर लें आपस मे ,
कि फिर से झगड़ने का ख्याल
आया ,
अब पैर बगावत करते है मेरे ,
फिर गुजरे थे गली
से तेरी ,
वही अहसास फिर से
क्यूँ ,
क्यूँ कोने वाले मकां का पता याद आया ,
पर ना कतरो
परिंदो के ,
उड़ने दो खुले आसमानों मे ,
हमें फिर से चिट्ठियों का ,
वो जमाना याद आया ,
जीनत बढ़ गई चमन
की ,
गुलों पर अजब शबाब छाया ,
एक दीवाना राह से
गुजरा था अभी ,
काँटों से तार-तार बदन याद आया ,
बंजारा भटका
रस्ते से ,
एक तारा टूटा झटके से ,
वो उम्मीदों से बैठे थे ,
मौसिकी का समां बे -हिसाब
आया ,
*** अंकित चौधरी ***
यूं तो मरने की चाह न थी मेरी
जवाब देंहटाएंपर देख तेरे हाथो में खंजर ,मरने का हसीं ख्याल आया।
वाह सुभान अल्लाह क्या खूब लिखा हैं जनाब .
शायद आपकी सोहबत का असर हो चला है आदरणीय ...
जवाब देंहटाएंवाह्ह्ह शानदार
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद ...
हटाएंवाह वाह
जवाब देंहटाएंअंकित भाई आप लाजवाब लिखते हैं
ये बेरुखी कैसी,खिलाफत कैसी अपने से
आ समझौता करले आपस में ,के फिर से झगड़ने का ख्याल आया।
ब्लॉग चलाने का स्वाद आ गया आज तो.
गजब.
हद पार इश्क
हौसला अफजाई के लिए हृदयतल से आभार आदरणीय ...
जवाब देंहटाएंशानदार।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद ...
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