बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

मक़ाम-ए-इश्क़


इश्क़ मे देखते - देखते क्या मक़ाम आया ,
बैठे थे सजदे मे ,और जुबां पर तेरा नाम आया,
यूँ तो मरने की चाह ना थी मेरी,
देख तेरे हाथों में खंजर ,मरने का हसीं ख्याल आया,

ये बेरुखी कैसी खिलाफत कैसी अपनो से ,
आ समझौता कर लें आपस मे ,
कि फिर से झगड़ने का ख्याल आया ,

अब पैर बगावत करते है मेरे ,
फिर गुजरे थे गली से तेरी ,
वही अहसास फिर से क्यूँ ,
क्यूँ कोने वाले मकां का पता याद आया ,

पर ना कतरो परिंदो के ,
उड़ने दो खुले आसमानों मे ,
हमें फिर से चिट्ठियों का ,
वो जमाना याद आया ,

जीनत बढ़ गई चमन की ,
गुलों पर अजब शबाब छाया ,
एक दीवाना राह से गुजरा था अभी ,
काँटों से तार-तार बदन याद आया ,

बंजारा भटका रस्ते से ,
एक तारा टूटा  झटके से ,
वो उम्मीदों से बैठे थे ,
मौसिकी का समां बे -हिसाब आया ,



 *** अंकित चौधरी ***


8 टिप्‍पणियां:

  1. यूं तो मरने की चाह न थी मेरी

    पर देख तेरे हाथो में खंजर ,मरने का हसीं ख्याल आया।

    वाह सुभान अल्लाह क्या खूब लिखा हैं जनाब .

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  2. शायद आपकी सोहबत का असर हो चला है आदरणीय ...

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  3. वाह वाह
    अंकित भाई आप लाजवाब लिखते हैं

    ये बेरुखी कैसी,खिलाफत कैसी अपने से
    आ समझौता करले आपस में ,के फिर से झगड़ने का ख्याल आया।

    ब्लॉग चलाने का स्वाद आ गया आज तो.
    गजब.

    हद पार इश्क 

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  4. हौसला अफजाई के लिए हृदयतल से आभार आदरणीय ...

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