बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

दर्जे दसवें ब्याह हो गया

दर्जे दसवें ब्याह हो गया ,
खुशियाँ  धरी रही सारी।

डिबिया जलाती थी आँगन मे ,
डिबियाँ बुझी रही सारी।
गुड़िया संग खेलती वो तो ,
गुड़ियाँ धरी रही सारी।

ख़्वाब गगन में उड़ने के ,
कतरे पर ! धरती पर पड़ी  रही। 
स्नेह लेखनी ,लिखना चाहे ,
स्याही ठंडी पड़ी रही। 

अँगुरी में अँगुष्ठिका का अंगारा ,
मृगतृष्णा से जुड़ी रही।
बचपन लील गई ज़िम्मेदारी,
हृदय पर चले नित -नित नई आरी।

दर्जे दसवें ब्याह हो गया ,
खुशियाँ धरी रही सारी

***अंकित चौधरी ***

13 टिप्‍पणियां:

  1. समाज की कुछ विसंगतियों के शिकार होते राजते हैं समाज वाले ही ... ऐसी प्रथाओं और मान्यताओं से बाहर आना होगा ...
    प्रभावी रचना ...

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  2. बहुत बढ़िया, उत्तम और सामाजिक विसंगतियों को ललकारती रचना

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  3. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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