कल धरती माँ रोई होगी,
पलकें यूँ भिगोई होगी।
देख अपने पुत्र की हालत,
जाने कैसे सोई होगी ।
सियासत का जब जोर चला,
अंधियारो का फिर शोर चला।
शोषण की जब सरकार हुई ,
चाहु ओर हाहाकार हुई।
ग़र हक की माँगो , खाओ लाठी ,
क्यूँ व्यवस्था इतनी लाचार हुई।
जब लाठी चली बुजुर्ग के पैरो पर,
हृदय मे कपकपी तो होई होगी।
कल धरती माँ रोई होगी...
वो उठता-गिरता,फिर से उठता,
जलता-तपता मेहनत करता ।
लहू देकर सींचे फसलो को,
वो धीरज धरता ,उफ् ना करता।
जब सपने टूटे, अपने छूटे,
वादे लगने लगे सब झूठे-झूठे।
लाचारी मे जब पहना होगा फंदा ,
बहा आंसू बैलो ने भी सुधबुध खोई होगी
कल धरती माँ रोई होगी...
क्यूँ फिर उठते कोई बोल नहीं,
क्या मेहनत का कोई मोल नही।
दुनिया वालो अब जग भी जाओ,
क्या जीवन का कोई मोल नहीं ।
ग़र दोषी हैं तो दोष बता,
ना शंका कर पुरजोर बता।
कब आएगे वो अच्छे दिन,
होश सम्हाल अब ,इस रोज बता।
कब तक यूँ ही जलना होगा,
चूम फाँसी को मरना होगा।
कब तक माँ यूँ बेटे खोएगी ,
कब तक निर्दोषो को जलना होगा।
कब छटेगा ये अंधियारा,
कोई सुबह तो होई होगी।
कल धरती माँ रोई होगी,
पलकें यू भिगोई होगी...
(अंकित चौधरी)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें