सोमवार, 10 जनवरी 2022

जाहिल

 

जाहिल था, 

दिए उनके जहर को ,अमृत समझ कर पी गया,

जर्रा-जर्रा करके बिखरा हूँ पतझड़ की तरहा ,

मासूमियत उनकी -

बोले, जालिम क्या खूब जिंदगी जी गया,

दर्द को क्या समझेंगे मेरे ,वो फूलों पर चलने वाले,

एक कांटा क्या लगा ,

जख्मों को कोई आंसू के मरहम से सी गया,

ना बहा आंसू कब्र पर मेरी,

ईमां को बड़ी ठेस लगती है,

उसूलों पर रहो कायम, ना बदलो इनको तुम,

तुम्हें तोल देगी दुनिया तराजू में ,

ये निगाह बड़ी तेज रखती है,

कभी होश में होंगे, तो बताएंगे तुमको,

गैरत क्या होती है ,और..

बदसीरत क्या मोल रखती है ,

अफसाना कह भी दूँ दिल का, 

पर जुबां आब साथ नहीं देती,

खंजर चलाओ धीरे से ,

मरती रूह अब आवाज नहीं देती, 

हद भी तो होगी कुछ मेरे इम्तिहान की,

या तो एक झटके से मारो ,

या हाथों को क्यू थाम नहीं लेती ,

*** अंकित चौधरी ***

10 टिप्‍पणियां:



  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (10-01-2022 ) को (चर्चा अंक 4305) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 09:00 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. दर्द भरी अभिव्यक्ति।
    उम्दा सृजन।

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  3. दर्द को बयां करता बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति!

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  4. बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति।
    वर्तमान का यही सच है।
    सादर

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