जाहिल था,
दिए उनके जहर को ,अमृत समझ कर पी गया,
जर्रा-जर्रा करके बिखरा हूँ पतझड़ की तरहा ,
मासूमियत उनकी -
बोले, जालिम क्या खूब जिंदगी जी गया,
दर्द को क्या समझेंगे मेरे ,वो फूलों पर चलने वाले,
एक कांटा क्या लगा ,
जख्मों को कोई आंसू के मरहम से सी गया,
ना बहा आंसू कब्र पर मेरी,
ईमां को बड़ी ठेस लगती है,
उसूलों पर रहो कायम, ना बदलो इनको तुम,
तुम्हें तोल देगी दुनिया तराजू में ,
ये निगाह बड़ी तेज रखती है,
कभी होश में होंगे, तो बताएंगे तुमको,
गैरत क्या होती है ,और..
बदसीरत क्या मोल रखती है ,
अफसाना कह भी दूँ दिल का,
पर जुबां आब साथ नहीं देती,
खंजर चलाओ धीरे से ,
मरती रूह अब आवाज नहीं देती,
हद भी तो होगी कुछ मेरे इम्तिहान की,
या तो एक झटके से मारो ,
या हाथों को क्यू थाम नहीं लेती ,
*** अंकित चौधरी ***
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (10-01-2022 ) को (चर्चा अंक 4305) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 09:00 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
आदरणीय, हार्दिक आभार 🙏
हटाएंदर्द भरी अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंउम्दा सृजन।
हार्दिक आभार, आदरणीया🙏
हटाएंदर्द को बयां करता बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार, आदरणीया🙏
हटाएंबहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंवर्तमान का यही सच है।
सादर
हार्दिक आभार, आदरणीया🙏
हटाएं👌👌👌
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार 🙏
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